दिल से

दुनिया में सबसे अनोखा विज्ञान: श्वास विज्ञान (The Science of Breathing)

दीर्घतमा ऋषि के अनुसार प्राण ही सब इन्द्रियों का रक्षक है। यह अविनाशी है तथा भिन्न-भिन्न नाड़ियों के द्वारा आता -जाता है। प्राण मुख और नासिका के द्वारा आता- जाता है। प्राण ही शरीर में अध्यात्म रूप में वायु के रूप में है,परन्तु अधिदैव रूप में सूर्य है।

श्वास विज्ञान (The Science of Breathing) क्या है ?

मनुष्य के शरीर में वायु की गति, अंग-अंग में वायु परिक्षण एवं प्रभाव का अन्वेषण ही श्वास विज्ञान में आता है। इसकी खोज हमारे ऋषि मुनियों ने दीर्घकालिक अनुभवों के बाद की थी। आश्चर्य जनक तथ्य यह है कि आज भी भारत के अलावा दुनिया के किसी देश में श्वास विज्ञान पर कोई कार्य नहीं हो रहा है।

यहां हम श्वास विज्ञान (The Science of Breathing) को संक्षिप्त रूप से बताने का प्रयास करेंगे –इसके अनुसार मनुष्य के शरीर में वायु के पृथक-पृथक नाम और अर्थ हैं। मूलतः वायु को पाँच प्रकार का माना जाता है —

1 -प्राणवायु —यह नासिका के अग्रभाग से बहिर्गमनकारी है।
2 -अपान ——यह अधोगमनशील है, पायु इसका स्थान है।
3 -समान ——यह अन्नदि का समीकारक है। शरीर के मध्य भाग में इसका स्थान है।
4 -उदान ——-यह उत्क्रमणकारी है कंठ में इसका स्थान है।
5 -व्यान ——यह शरीर के सब भागों में गमनकारी है।

इसके अतिरिक्त भी वायु को पाँच अन्य प्रकार का होना बताया गया है —

1 -नागवायु -यह उदगार के लिए है।
2 -कूर्मवायु -यह उन्मलिन के लिए है।
3 -कृकच वायु -यह क्षुधा के लिए है।
4 -देवदत्त वायु -यह जृम्मण के लिए है।
5 -धनंजय वायु-शरीर पोषण के लिए हमारे शरीर में विद्यमान है।

श्वास का आना-जाना ही जीवन्तता प्रतीक है। जिसे प्राण भी कहा जाता है।

आखिर प्राण की महत्ता है क्या?Breathing.

प्राचीन काल में ऋषि मुनियों ने प्राण विद्या का विषद अध्यन किया। दीर्घतमा ऋषि ने स्वयं प्राण को देखा एवं साक्षात्कार किया है। उन्हें ही ऋग्वेद के 1/64/31 तथा 10 /177/31 मन्त्र का दृष्टा माना जाता है।

अपश्यं गोपामनिपद्ममान, मा च परा च पथिभिश्रवरन्तम्
स सध्रीचीः स विषूचीर्वसान आवरी वर्ति भुवनेष्वनत: ||

दीर्घतमा ऋषि के अनुसार प्राण ही सब इन्द्रियों का रक्षक है। यह अविनाशी है तथा भिन्न-भिन्न नाड़ियों के द्वारा आता -जाता है। प्राण मुख और नासिका के द्वारा आता- जाता है। प्राण ही शरीर में अध्यात्म रूप में वायु के रूप में है,परन्तु अधिदैव रूप में सूर्य है।

प्रश्नोपनिषद 1/7 में कहा गया है–

आदित्यो वै ब्राह्म प्राण उदयत्येष ह्मनं चाक्षुषं प्राणमनुगृह्णते।

अर्थात यह प्राण आदित्य रूप से मुख्य तथा अवान्तर दिशाओं को व्याप्त कर वर्तमान है और सब भुवनो के मध्य में बारम्बार आकर निवास करता है। वेद भगवान कहते हैं —

अपाड प्राडेति स्वधया गृभीतोsमर्त्यो मर्त्येना सयोनिः।
ता शश्र्वन्ता विषूचीना वियन्ता न्यन्यम चिक्यूर्ण निचिक्युरुयम्। । ऋग्वेद 1/164/38

अर्थात यह प्राण इस शरीर में स्वधा-अन्न के द्वारा ही स्थित है। यह मल-मूत्र आदि निकालने के लिए अधोभाग में तथा श्वास के लिए उर्ध्वभाग में संचरण किया करता है। प्राण मृत्यु रहित है परन्तु यह मरणशील विपरीत धर्म वाले शरीर के साथ निवास करता है। मृत्यु उपरान्त शरीर नीचे गिरता है तथा प्राण ऊपर जाता है जाता है।

हमारे ऋषि-मुनियों ने प्राणायाम के लिए नाडिजय यानि श्वास जय सिद्धांत की खोज की। यम-नियम और आसन इन तीनों के सिद्ध होने पर नाड़िजय साधना की जाती है। इड़ा व पिंगला यानि बाँईं तथा दायीं नासिका के श्वास पर नाड़िजय कहते हैं।

विश्व में अकेले भारत में “शिव स्वरोदय ग्रन्थ “ पाया जाता है। यह स्वर शास्त्र का स्वतंत्र ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ में भिन्न-भिन्न कार्यों के लिए भिन्न-भिन्न नाडियों का चलना आवश्यक बताया गया है। योग सिद्ध लोग निरंतर अभ्यास 12 घंटे एक ही नाड़ि चलना सिद्ध करते हैं। सामान्यतः इड़ा और पिंगला नासारन्ध्रों से 2 ½ घडी प्रत्येक नाड़ी चलती है। जबकि प्रातःकाल 4 घंटे 48 मिनट आकाश तत्व स्थिर रहता है। इसे संधिकाल कहते हैं। आकाश तत्व व पृथ्वी तत्व के उदय के समय 2-3 मिनट समस्वर रहते हैं, यह सुषुम्ना नाड़ी है।

योग शास्त्र के ग्रंथों में योग के चार भाग बताये गए हैं –1-मन्त्र योग 2 -लय योग 3 – हठ योग 4 -राज योग

लय योग तथा हठ योग में नाड़ियों इला, पिंगला तथा सुषम्ना का वर्णन आता है। जिस समय श्वास सुषम्ना नाड़ी में चलती है उसी समय सुषम्ना नाड़ी में कुण्डलिनी प्रवेश करती है। सुषम्ना नाड़ी को काल भक्षक कहा जाता है। सुषम्ना नाड़ी में कुण्डलिनी प्रवेश की चरम स्थिति समाधि कहलाती है। इस अवस्था में शरीर विकार रहित हो जाता है। नख, केश नहीं बढ़ते तथा हृदय की गति स्थिर हो जाती है। इस अवस्था को प्राप्त योगी कालभक्षक कहलाते हैं।

हमारे शास्त्रों में एक दिन और रात को साठ घडी में बाँटा है। प्रातःकाल सूर्योदय केसमय से ढाई घडी के हिसाब से बारह बार दायीं तथा बारह बार बायीं नासिका से श्वास चलता है। पवन विजय स्वरोदय शास्त्र में इसका विस्तृत वर्णन करते हुए कहा गया है —

आदौ चद्रः सिते पक्षे, भास्करस्तु सितेतरे।
प्रतिपत्तो दिनान्याहुस्त्रिणी त्रीणि क्रमोदये। ।

अर्थात शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा (प्रथमा) तिथि से तीन तीन दिन को बारी से चन्द्र अर्थात बायीं नासिका से तथा कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा तिथि से तीन तीन दिन की बारी से सूर्य अर्थात दायीं नासिका से पहले श्वास प्रवाहित होता है ।इस प्रकार शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा, द्वितीया, तृतिया, सप्तमी, अष्टमी, नवमी, त्रयोदशी, चतुर्दशी, पूर्णिमा ( नो दिन) में प्रातःकाल सूर्योदय के समय सबसे पहले बायीं नासिका से तथा चतुर्थी, पंचमी, षष्ठी, दशमी, एकादशी, द्वादशी (छः दिन )में प्रातः काल सूर्योदय के समय सबसे पहले दायीं नासिका से श्वास चलना प्रारम्भ होता है।

यह क्रम ढाई घडी के हिसाब से बाएं से दायें और दायें से बाएं बदलता। श्वास लेने व छोड़ने की गति को श्वास व प्रश्वांस कहते हैं। इसको समझ कर कार्य करने से शरीर स्वस्थ रहता है और मनुष्य दीर्घायु होता है।

सामान्यतः मनुष्य प्रति मिनट 13 से 15 श्वास-प्रश्वास लेता है यानी 24 घंटे में 21600 तक। जिस मनुष्य की प्रति श्वास- प्रश्वास की गति जीतनी कम होगी उसकी आयु उतनी ही बढ़ेगी। हमारे शास्त्रों में इड़ा-पिंगला यानी बायीं तथा दायीं श्वास चलते समय किन कार्यों को किया जाए इसका भी वर्णन किया गया है।

कहा गया है कि जिस समय इड़ा नाड़ी अर्थात बायीं श्वास चलता हो उस समय आभूषण धारण करना, यात्रा प्रारम्भ करना, मंदिर या मकान, तालाब, कुआँ निर्माण प्रारम्भ करना, शांति कर्म, औषधि सेवन करने से लाभ मिलता है। इसी प्रकार पिंगला नाड़ी यानी दायीं नासिका से श्वास चलते समय क्रूट विद्याध्यन-अध्यापन, स्त्री संसर्ग, तांत्रिक उपासना, संगीत अभ्यास आदि कार्य प्रारम्भ करने चाहियें। सुषम्ना के समय ध्यान-योगाभ्यास ही उचित माना गया है।

श्वास विज्ञान विश्व में एकमात्र भारत की खोज है तथा आज भी हमारे ऋषि-मुनियों द्वारा इसका प्रयोग किया जाता है। कहा जाता है कि हिमालय में अवस्थित अनेकोनेक महात्मा हजारों वर्ष की आयु वाले सिद्ध पुरुष हैं। आज आवश्यकता इस बात की है कि इस श्वास विज्ञान को पोषित- प्रचारित किया जाए। राष्ट्र हित में शोध किये जाएँ तथा विश्व पटल पर इसका प्रचार-प्रसार करके भारत को पुनः विश्व गुरु पद पर स्थापित किया जाए।

(सन्दर्भ- ऋग्वेद, कार्तवीर्यार्जुन पुराण, पवन विजय स्वरोदय शास्त्र)

A. Kirti Vardhan

डॉ अ कीर्ति वर्द्धन वरिष्ठ साहित्यकार हैं। जिनके लेखन और चिन्तन का दृष्टिकोण मानवता व राष्ट्रवादी हैं। संस्कारों और सभ्यता संस्कृति के समर्थक पोषक व प्रेरक Kirti Vardhan की अनेक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।

    A. Kirti Vardhan has 3 posts and counting. See all posts by A. Kirti Vardhan

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    nineteen − 5 =