ममता या मोह? एक मां के अवैध संबंधों की अधूरी कहानी जिसने बेटे की जिंदगी बदल दी – Love or Obsession (Part 2)
✅कहानी का पहला भाग आपने सुना — जहां मां और बेटे, रीना और मृत्युंजय के बीच समाज के बंधन, Love, Obsession और रिश्तों की दीवारों ने ममता को कैद कर दिया। आज, यह कहानी वहीं से आगे बढ़ती है। यह केवल एक मां-बेटे की नहीं, बल्कि उस समाज की भी कहानी है जो ममता को शर्म, झूठे संस्कारों और डर की जंजीरों में जकड़ देता है। यह कहानी जीवन, पछतावे और प्रेम की उस जंग की है जहां ममता थक गई — पर बेटे का विश्वास अब भी जिंदा था।
अस्पताल का सन्नाटा
अस्पताल के कमरे में मशीनें टिक-टिक कर चल रही थीं। हर आवाज़ जैसे किसी अधूरी दुआ का जवाब हो। मृत्युंजय की सांसें धीमी थीं, शरीर बेहद कमजोर। IV की बॉटल टपक रही थी, और उसकी आंखों में सिर्फ एक सवाल था — क्या मां अब भी मेरे साथ खड़ी होगी?
उसने हिम्मत जुटाकर धीरे से कहा, “मां… क्या तुम मुझे अपने साथ ले चलोगी?” रीना की आंखों में आंसू थे, लेकिन होंठों पर शब्द नहीं। उसका कंधा बोझिल था — एक ओर समाज का डर, दूसरी ओर अपने बेटे की सिकुड़ती सांसें। वह ‘हां’ कहना चाहती थी, पर भीतर कोई चिल्ला रहा था, “मत करो रीना … लोग क्या कहेंगे?”
मृत्युंजय ने टूटी आवाज़ में कहा, “मां, कभी-कभी बीमारी नहीं मारती, बल्कि अपनों की गैर-हाजिरी मार देती है मां…” यह सुनते ही रीना का दिल छलनी हो गया। उसकी आंखें सूख चुकी थीं; हर आंसू समाज के डर में कैद था।
ममता बनाम डर
“मां, अब तुम मुझे साथ चलोगी ना?”
रीना खामोश रही। बेटे की हर बात जैसे दीवारों से टकराकर लौट रही थी। “बस कुछ दिन अपने पास रख लो ना मां… मैं ठीक हो जाऊंगा … मुझे तुम्हारे आंचल की ज़रूरत है,” मृत्युंजय ने कहा। लेकिन रीना दो हिस्सों में बंट चुकी थी — आधा बेटा, आधा समाज।
उसे लगता था कि अगर वह बेटे को ले जाएगी तो उसका सच सबके सामने आ जाएगा। उसके झूठे रिश्तों की पोल खुल जाएगी, और वह समाज के ताने नहीं झेल पाएगी। झूठे संस्कारों और दिखावे का बोझ उसने अपने कंधों पर ढो रखा था।
रात देर तक वह बेटे के बिस्तर के पास बैठी सोचती रही। फिर उसने फोन उठाया और पाठक को कॉल किया — “पाठक जी, मृत्युंजय मेरा इंतज़ार कर रहा है… मुझे उसे लेकर जाना होगा।” फोन के उस पार से ठंडी आवाज़ आई — “रीना, अगर तुमने इस बार गलती की तो सब खत्म हो जाएगा। लोग देखेंगे कि तुम कैसी मां हो। तुम्हारी इज्जत मिट्टी में मिल जाएगी।”
रीना ने फोन काट दिया। दीवार को घूरती रही — वही दीवार जिसके पीछे उसका बेटा जिंदगी और मौत के बीच झूल रहा था। कुछ देर बाद उसने फिर फोन लगाया — “पाठक जी, मृत्युंजय की हालत और बिगड़ गई है… वो चाहता है मैं उसे घर ले जाऊं।”
थोड़ी चुप्पी के बाद वही ठंडी आवाज़ आई — “रीना, अगर अब कोई गलती की तो तुम्हारी नौकरी, इज्जत — सब चला जाएगा। लोग बातें बनाएंगे, सोच लो…”
उसके हाथ कांप उठे। उसने फोन बंद किया और बेटे के पास लौट आई। उसके माथे पर हाथ रखकर बोली, “बेटा, मैं जरूर लेकर चलूंगी तुम्हें जल्द ही, अभी कुछ जरूरी काम हैं मां के पास…”
मृत्युंजय ने आंखें मूंद लीं। उसे समझ आ गया कि अब उसकी मां का नहीं, समाज का डर बोल रहा है।
पैसों का हिसाब, ममता का दिवालियापन-Love or Obsession
अगले दिन जब रीना जाने को तैयार हुई, उसने बेटे के पास बैठकर कहा, “बेटा… तुम्हारी बीमारी में बहुत खर्च हुआ है — नारियल पानी, फलों का रस, दवाएं — कुल मिलाकर नौ सौ रुपए के करीब।” फिर उसने पर्स से दो हजार रुपए निकालते हुए कहा, “लो बेटा, ये रख लो — कुछ फल-वगैरह ले लेना।”
मृत्युंजय पल भर के लिए ठहर गया। फिर बोला, “मां, ये पैसे अपने पास रख लो … मुझे तुम्हारे पैसों की नहीं, तुम्हारे आंचल की जरूरत थी। जिस मां की छांव नहीं मिली, उसके पैसों से मैं क्या करूं?”
रीना ठिठक गई। शब्द गले में अटक गए। उसने पैसे वापस रखे और बिना कुछ कहे बाहर चली गई।
बेटे की सीख-पिता ने थाम लिया हाथ
पिता कमरे में लौटे तो देखा, मृत्युंजय खामोश पड़ा है। उन्होंने पूछा, “बेटा, अब कैसा लग रहा है?”
मृत्युंजय ने धीमे से कहा, “पापा, कभी-कभी लगता है कि मां का होना भी एक किस्म की गैरहाजिरी है।”
पिता ने उसका हाथ थाम लिया। बोले, “कुछ लोग अपनी ममता को समाज के हवाले गिरवी रख देते हैं। हमें अब मजबूत बनना होगा।”
समय बीता। पिता के धैर्य और बेटे की दृढ़ता ने हालत सुधार दी। मगर मृत्युंजय का विश्वास अब भी उस ममता की वापसी से जुड़ा था — जो कभी लौटी ही नहीं।
“पापा,” उसने कहा, “शायद मेरी बीमारी किसी और बच्चे के लिए सीख बन जाए। कोई बेटा यह दर्द न सहे, और कोई मां अपनी ममता को समाज के डर में कैद न करे।”
धीरे-धीरे अस्पताल की वही दीवारें, जो कभी कराहों से गूंजती थीं, अब उम्मीद की सांसें लेने लगीं। मृत्युंजय ने जैसे मौत से नहीं, समाज से जीतना शुरू कर दिया।
एक अंत जो शुरुआत बन गया
“ममता तब तक जिंदा रहती है जब तक एक बच्चा अपनी मां को पुकारता है। लेकिन जब समाज उस पुकार पर ताले लगा देता है — तब इंसानियत मर जाती है। सच्चा धर्म, सच्चा समाज और सच्चा प्यार वही है जो डर के बावजूद सही को थामे। मां का आंचल सिर्फ कपड़ा नहीं होता — वह जीवन का सबसे सच्चा मरहम होता है।”


ममता बनाम डर