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Phule Movie: स्पष्ट विचारों पर सेंसर की कैंची! ‘फुले’ फिल्म विवाद के बहाने कलात्मक आज़ादी पर गहराते सवाल

राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता निर्देशक अनंत महादेवन की Phule Movie /‘फुले’ फिल्म पहले से ही चर्चाओं में है। ये फिल्म महात्मा ज्योतिराव फुले और उनकी पत्नी सावित्रीबाई फुले के जीवन संघर्ष पर आधारित है, जिनका योगदान भारतीय समाज में शिक्षा और सामाजिक समानता की नींव रखने में अहम था। लेकिन फिल्म की रिलीज़ में आ रही देरी ने इसे एक नए विवाद में डाल दिया है। जबकि 11 अप्रैल 2025 को फिल्म का प्रदर्शन होने वाला था, महाराष्ट्र के ब्राह्मण संघठनों द्वारा जातिवाद को बढ़ावा देने के आरोप के बाद फिल्म को अब 25 अप्रैल 2025 तक स्थगित कर दिया गया है।


🎥 फिल्म ‘फुले’ का उद्देश्य: समाज में बदलाव की गूंज

‘फुले’ फिल्म न केवल एक ऐतिहासिक फिल्म है, बल्कि यह भारतीय समाज के उन सामाजिक सुधारकों के संघर्ष को पर्दे पर लाने की कोशिश करती है जिन्होंने जातिवाद, लिंग भेदभाव, और शोषण के खिलाफ आवाज उठाई। फिल्म में प्रतीक गांधी ने ज्योतिराव फुले का और पत्रलेखा ने सावित्रीबाई फुले का किरदार निभाया है। फिल्म का मुख्य उद्देश्य उन दोनों के 1848 में भारत में पहली बार लड़कियों के लिए स्कूल खोलने के साहसिक कदम को उजागर करना है।


⚖️ सेंसर बोर्ड और ब्राह्मण संगठनों का विवाद- Phule Movie

फिल्म के खिलाफ विवाद की शुरुआत तब हुई जब ब्राह्मण संगठनों ने आरोप लगाया कि फिल्म में उनके समुदाय को नकारात्मक रूप में प्रस्तुत किया गया है। उनका कहना है कि फिल्म में जातिवाद को बढ़ावा दिया जा रहा है। इन आरोपों के बाद, सेंट्रल बोर्ड ऑफ फिल्म सर्टिफिकेशन (CBFC) ने कुछ संवादों में बदलाव का सुझाव दिया – जैसे ‘मांग’, ‘महार’, ‘पेशवाई’ जैसे जातीय संदर्भ वाले शब्दों को हटाना या बदलना। साथ ही, फिल्म में एक संवाद ‘3000 वर्षों की गुलामी’ को बदलकर ‘अनेक वर्षों की गुलामी’ करने का प्रस्ताव रखा।

इससे अनंत महादेवन और फिल्म निर्माता समुदाय में विरोध का जन्म हुआ। उनका कहना था कि इस तरह के बदलाव फुले दंपत्ति के विचारों की प्रामाणिकता को कमजोर कर देंगे और ऐतिहासिक सच्चाई को छिपाने जैसा होगा।


🧐 क्या फिल्मों के लिए मानक अलग-अलग हैं?

यह पहला मामला नहीं है जब किसी फिल्म को इस तरह की सेंसरशिप का सामना करना पड़ा है। ‘द केरला स्टोरी’ और ‘द कश्मीर फाइल्स’ जैसी फिल्मों को बिना किसी समस्या के रिलीज़ करने दिया गया। लेकिन ‘फुले’ जैसी फिल्म जो सामाजिक सुधार और ब्राह्मणवाद विरोधी संघर्ष की बात करती है, उसे इस तरह की सख्ती का सामना क्यों करना पड़ रहा है?

CBFC पर यह आरोप है कि यह बोर्ड अपनी नीतियों में विवेकहीनता और पक्षपाती निर्णय दिखा रहा है। क्या यह चुनावी दबावों और राजनीतिक ताकतों का नतीजा है? यह सवाल अब खुले तौर पर खड़ा हो गया है।


💔 सामाजिक सुधार और जातिवाद विरोधी संघर्ष का चित्रण

महात्मा फुले का कार्य सिर्फ शिक्षा तक सीमित नहीं था। उन्होंने सत्यशोधक समाज की स्थापना की, जो भारतीय समाज में जातिवाद, धार्मिक आतंकवाद और अस्पृश्यता के खिलाफ एक आंदोलन था। यही कारण है कि उन्हें आलोचनाओं का सामना करना पड़ा। फुले दंपत्ति का संघर्ष आज भी प्रासंगिक है, क्योंकि भारत में जातिवाद, महिलाओं और दलितों के अधिकारों की लड़ाई अब भी जारी है।

सावित्रीबाई फुले के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। वह एक ऐसी महिला थीं जिन्होंने न केवल अपने पति की मदद की, बल्कि अपने व्यक्तिगत जीवन में संघर्षों का सामना करते हुए देश की पहली महिला शिक्षिका के रूप में एक मिसाल कायम की।


🌍 सामाजिक बुराइयों के खिलाफ फुले का संघर्ष: फिल्म के माध्यम से एक नजर

‘फुले’ फिल्म केवल एक ऐतिहासिक रचनात्मकता नहीं है, बल्कि यह जातिवाद, सामाजिक भेदभाव, और लिंग भेदभाव के खिलाफ एक साहसी मुहिम है। फिल्म में फुले दंपत्ति की शिक्षा के क्षेत्र में क्रांतिकारी भूमिका को दिखाया गया है, लेकिन ब्राह्मणवाद और धार्मिक प्रथा के खिलाफ उनकी कटु आलोचना भी बहुत महत्वपूर्ण है।

महात्मा फुले ने अपनी ‘गुलामगिरी’ पुस्तक के माध्यम से जातिवाद को उघाड़ते हुए इस पर प्रहार किया था। उन्होंने कहा था, “जब तक समाज शिक्षित नहीं होगा, वह गुलाम रहेगा।” यह विचार न केवल उस समय के लिए, बल्कि आज भी हमारे समाज में प्रासंगिक है।


🎤 निर्देशक अनंत महादेवन का बयान: क्या है उनका असली उद्देश्य?

अनंत महादेवन ने फिल्म का बचाव करते हुए कहा, “मेरी फिल्म का कोई एजेंडा नहीं है। यह भारतीय समाज को आकार देने वाले व्यक्तित्वों की सिनेमाई श्रद्धांजलि है।” उनका कहना था कि इस फिल्म का उद्देश्य केवल सामाजिक जागरूकता फैलाना है, न कि किसी को आहत करना। फिल्म में उठाए गए मुद्दे जातिवाद और समाज सुधार की दिशा में एक सशक्त कदम हैं।


🌟 महात्मा फुले की विरासत: फिल्म से परे

महात्मा फुले की विचारधारा आज भी हमारे लिए उतनी ही महत्वपूर्ण है, जितनी तब थी। उनकी सत्यशोधक समाज ने समानता, शिक्षा और समाज में जातिवाद के खिलाफ एक मज़बूत मंच तैयार किया। उनकी मूल्यवान विचारधारा का आदान-प्रदान आज भी हमारे समाज के कई पहलुओं में दिखता है, विशेष रूप से जब हम दलित अधिकारों, महिला सशक्तिकरण और शैक्षिक समानता की बात करते हैं।


🔥  ‘फुले’ फिल्म और समाज में बदलाव का आंदोलन

फिल्म ‘फुले’ केवल एक चलचित्र नहीं है, बल्कि यह एक सामाजिक संघर्ष की आवाज है, जो जातिवाद, शोषण और असमानता के खिलाफ बगावत करती है। यह फिल्म केवल महात्मा फुले और सावित्रीबाई फुले के जीवन पर आधारित नहीं है, बल्कि यह उनकी विरासत को सहेजने और उसे समाज में सशक्त रूप से फैलाने की कोशिश है।

चाहे Phule Movie पर विवाद हो या सेंसरशिप की कैंची, यह एक महत्वपूर्ण सवाल खड़ा करती है – क्या समाजिक सुधार की आवाज़ को कभी भी दबाया जा सकता है?

kalpana Pandey

कल्पना पांडे महाराष्ट्र के महिला और बाल विकास विभाग में सेवारत हैं, जहाँ वे महिलाओं और बालकों से जुड़े सामाजिक मुद्दों पर सक्रिय रूप से काम करती हैं। शैक्षिक दृष्टि से (MSW) में अग्रणी रहते हुए, वे छात्र जीवन में विभिन्न शैक्षिक गतिविधियों का हिस्सा रही हैं। स्वतंत्र लेखक के रूप में, कल्पना कई प्रतिष्ठित संस्थानों से जुड़ी हुई हैं और उनके लेखन में सामाजिक परिवर्तन, शिक्षा और महिला सशक्तिकरण के विषय प्रमुख हैं। उनकी एक पुस्तक, "सर्कस", लेखनाधीन है, जो समाज के विभिन्न पहलुओं को परखने का प्रयास है। कल्पना पांडे का उद्देश्य समाज में सकारात्मक बदलाव लाना और महिलाओं के अधिकारों के लिए आवाज उठाना है।

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