ट्रम्प का नया वीज़ा शॉक: H-1B और H-4 पर सोशल मीडिया निगरानी अनिवार्य, भारतीय प्रोफेशनल्स में हड़कंप
H-1B visa rules में बड़े बदलाव की घोषणा होते ही भारतीय पेशेवरों के बीच चिंता की लहर दौड़ गई है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने अब एच-1बी और एच-4 दोनों ही वीज़ा कैटेगरीज के लिए सोशल मीडिया अकाउंट को पब्लिक रखना अनिवार्य कर दिया है। अमेरिकी सुरक्षा एजेंसियां आवेदकों के पोस्ट, लाइक्स, फॉलोअर्स और डिजिटल बिहेवियर का विश्लेषण करके तय करेंगी कि वीजा जारी किया जाए या नहीं।
15 दिसंबर से लागू हो रहे इस नियम ने भारतीय आईटी इंडस्ट्री, टेक सेक्टर, और लाखों युवाओं के भविष्य पर असर डालना शुरू कर दिया है।
ट्रम्प के नए आदेश ने अमेरिका जाने के सपने पर बढ़ाई कठिनाई—H-1B वीज़ा अब पहले से ज्यादा सख्त
अमेरिकी दूतावासों को जारी नई गाइडलाइन के अनुसार, अब किसी भी एच-1बी वीज़ा या उसके आश्रितों (पत्नी, बच्चे, माता-पिता) के लिए H-4 वीजा आवेदन करते समय सोशल मीडिया आईडी छिपाना या प्राइवेट रखना मंजूर नहीं होगा।
अधिकारियों को स्पष्ट निर्देश दिया गया है कि—
आवेदक की सोशल मीडिया गतिविधियों को अमेरिकी “राष्ट्रीय हितों” के अनुरूप जांचा जाए
किसी भी प्रकार की संदिग्ध, विवादित या आलोचनात्मक पोस्ट को जोखिम माना जाए
यदि कोई गतिविधि अमेरिकी सुरक्षा नीति से विरोधाभास रखती हो तो वीज़ा तुरंत रिजेक्ट किया जाए
यह पहली बार है जब एच-1बी श्रेणी में डिजिटल वेरिफिकेशन को औपचारिक रूप से शामिल किया गया है।
केवल एच-1बी ही नहीं—स्टूडेंट और विज़िटर वीज़ा में भी लागू हो चुके हैं सोशल मीडिया नियम
ट्रम्प प्रशासन ने इससे पहले स्टडी वीज़ा (F-1, M-1, J-1) और विज़िटर वीज़ा (B-1, B-2) के लिए भी अगस्त महीने से सोशल मीडिया प्रोफाइल की जांच अनिवार्य कर दी थी।
इससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि आने वाले महीनों में अमेरिकी इमिग्रेशन पूरी तरह डिजिटल निगरानी आधारित हो जाएगा।
विशेषज्ञों का मानना है कि ये बदलाव H-1B visa rules को इतिहास में पहली बार सबसे कठोर बना रहे हैं।
70% एच-1बी भारतीयों को मिलता है—इस बार भी सबसे बड़ा झटका भारत को
एच-1बी वीज़ा भारतीय युवाओं के लिए हमेशा एक आकर्षक अवसर रहा है, क्योंकि दुनिया की सबसे बड़ी टेक इंडस्ट्री—सिलिकॉन वैली—उन्हीं पर निर्भर है।
हर साल जारी होने वाले कुल एच-1बी में से लगभग 70% भारतीयों को मिलते हैं।
लेकिन सोशल मीडिया स्क्रीनिंग और बढ़ी हुई फीस के कारण अब यह राह पहले से कहीं अधिक चुनौतीपूर्ण हो गई है।
H-1B visa rules की सबसे विवादित बात—फीस 9 हजार डॉलर से बढ़कर लगभग 90 लाख रुपये
2025 में ट्रम्प प्रशासन ने एच-1बी फीस में ऐतिहासिक वृद्धि की।
पहले जहां करीब 9 हजार डॉलर खर्च होते थे, वहीं अब फीस लगभग 90 लाख रुपये तक पहुंच गई है।
यह फीस भारतीय आईटी कंपनियों और व्यक्तिगत आवेदकों दोनों के लिए अत्यधिक बोझिल साबित हो रही है।
आईटी सेक्टर का कहना है कि—
इतना बड़ा शुल्क केवल अमीर कंपनियां ही वहन कर पाएंगी
छोटे संगठनों और प्रतिभाशाली युवाओं पर इसका गंभीर असर होगा
अमेरिकी टेक सेक्टर में स्किल्ड वर्कर्स की कमी बढ़ जाएगी
एच-1बी की अवधि—6 वर्षों तक अमेरिका में रहने का अवसर, फिर ग्रीन कार्ड का रास्ता
एच-1बी वीज़ा सामान्यत: 3+3 साल की अवधि, यानी अधिकतम 6 वर्ष के लिए दिया जाता है।
6 साल बाद आवेदक ग्रीन कार्ड के लिए आवेदन कर सकता है, लेकिन नई नीतियों के बाद यह राह और लंबी व जटिल हो सकती है।
ट्रम्प का 9 साल का उतार–चढ़ाव—कभी कहा अमेरिकी हितों के खिलाफ, कभी कहा हमें टैलेंट चाहिए
ट्रम्प का एच-1बी पर रुख वर्षों से अस्थिर रहा है—
2016: एच-1बी को “अमेरिकी हितों के खिलाफ” बताया
2019: इसका एक्सटेंशन सस्पेंड कर दिया
2024–25: फिर यू-टर्न लेकर घोषणा की— “हमें दुनिया के सबसे प्रतिभाशाली दिमाग चाहिए”
लेकिन गहन स्क्रीनिंग और महंगी फीस से यह संदेश मिलता है कि ट्रम्प की नीतियां अभी भी कड़ी निगरानी पर आधारित हैं।
ट्रम्प के नए ‘गोल्ड कार्ड’ वीज़ा—अमेरिका में हमेशा रहने का अधिकार
एच-1बी में बदलावों के साथ-साथ ट्रम्प प्रशासन ने 3 नए वीज़ा कार्ड भी लॉन्च किए—
ट्रम्प गोल्ड कार्ड
ट्रम्प प्लेटिनम कार्ड
कॉर्पोरेट गोल्ड कार्ड
सबसे चर्चित ट्रम्प गोल्ड कार्ड है, जिसकी अनुमानित कीमत 8.8 करोड़ रुपये बताई जा रही है। यह कार्ड धारक को अमेरिका में अनलिमिटेड रेसीडेंसी, यानी “हमेशा रहने” का अधिकार देता है।
विशेषज्ञों का मानना है कि यह योजना अमीर निवेशकों को आकर्षित करने के लिए बनाई गई है।
भारतीय टेक इंडस्ट्री पर सीधा असर—H-1B visa rules बदलते ही कंपनियों की रणनीति बदली
भारत हर साल लाखों इंजीनियर और कंप्यूटर साइंस ग्रेजुएट तैयार करता है, जिनकी मांग अमेरिकी टेक सेक्टर में सबसे ज्यादा है।
इन्फोसिस, टीसीएस, विप्रो, कॉग्निजेंट, एचसीएल जैसी कंपनियां सबसे ज्यादा H-1B स्पॉन्सर करती हैं।
लेकिन अब—
सोशल मीडिया जांच
बढ़ी हुई फीस
सख्त बैकग्राउंड वेरिफिकेशन
इन सभी ने टेक कंपनियों को नए विकल्प खोजने पर मजबूर कर दिया है।
यही कारण है कि युवा भारतीय अब कनाडा, यूरोप, ऑस्ट्रेलिया, सिंगापुर और मिडिल ईस्ट की ओर रुख कर रहे हैं।
कई विश्लेषकों का दावा है कि भारत अब अमेरिका को “सॉफ्टवेयर इंजीनियर” एक्सपोर्ट करने वाला देश नहीं रहेगा, क्योंकि यूएस ने उनके लिए दरवाज़ा बहुत महंगा और जटिल कर दिया है।
भविष्य की तस्वीर—क्या H-1B वीज़ा अब भी भारतीयों का सपना रहेगा?
विशेषज्ञ मानते हैं कि आने वाले समय में अमेरिकी इमिग्रेशन सिस्टम पूरी तरह डिजिटल मॉनिटरिंग आधारित होगा, जिसमें सोशल मीडिया सबसे बड़ा निर्णय कारक बन जाएगा।
लाखों युवा भारतीयों के लिए यह चिंता का विषय है कि एक गलत पोस्ट या लाइक भी उनके करियर को प्रभावित कर सकता है।
हालांकि अमेरिका अभी भी दुनिया का सबसे बड़ा टेक-हब है, इसलिए टैलेंट की मांग कम नहीं होगी, पर रास्ता अब पहले से अधिक मुश्किल और महंगा हो चुका है।

