चार लाख से अधिक हिंदू मंदिरों पर सरकारी कब्जा, किंतु एक भी चर्च या मस्जिद पर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं – Pramod Tyagi
विश्व हिंदू महासंघ के राष्ट्रीय सचिव प्रमोद त्यागी (Pramod Tyagi) ने केंद्र सरकार से मांग करते हुए कहा कि हिंदुओ के सभी धार्मिक स्थलों पर सरकार द्वारा नियंत्रण किया जाना राष्ट्रहित में नहीं हैं अभी हाल ही में दिल्ली स्थित हिंदुओं की आस्था के प्रमुख कालिका मंदिर पर सरकार द्वारा रिसीवर बैठाया जाना भी हिंदुओं की धार्मिक भावनाओं पर कुठाराघात से कम नहीं हैं जबकि एक भी चर्च, मस्जिद, गुरुद्वारा, वक्फ बोर्ड को सरकारी अधिग्रहण में न लिया जाना भी सरकारी नीतियों के किर्यान्वयन में भेदभाव दर्शाता है।
भारतीय परंपरा में किसी हिंदू राजा ने मंदिरों पर अधिकार या नियंत्रण नहीं जताया न उनसे कर वसूला। धार्मिक कार्यों में राजा द्वारा हस्तक्षेप के उदाहरण नहीं मिलते। दुर्भाग्यवश स्वतंत्र भारत में भी हिंदू समुदाय को अपने धार्मिक, शैक्षिक व सांस्कृतिक संस्थान चलाने का वह अधिकार प्राप्त नहीं जो अन्य सम्प्रदाय विशेष रूप से मुस्लिम, सिख व ईसाई समुदाय को है।
समस्त हिंदू पूरे देश में मंदिरों की मुक्ति का अभियान चला रहे हैं। धीरे-धीरे इसमें इतनी गति आ रही है कि कुछ राजनीतिक दल भी इसे अपने वादों में स्थान देने लगे हैं। पिछले दिनों तमिलनाडु विधानसभा चुनाव के दौरान सदगुरु जग्गी वासुदेव ने लोगों से निवेदन किया कि वे वोट मांगने वालों से मंदिरों को राजकीय चंगुल से मुक्त कराने का वचन लें। इसी तरह कुछ शैक्षिक व वैचारिक मंच भी इसके लिए जन-जागरण चला रहे हैं। इस बीच जानकारी मिली हैं कि भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा ने कई मंदिरों के लिए केंद्रीय बोर्ड बनाने की भी बात छेड़ी है यानी मंदिरों को अप्रत्यक्ष सरकारी नियंत्रण में लेने का प्रस्ताव। इस पर तीखी प्रतिक्रियाएं हुई हैं। इसके पीछे कुछ विशेष संगठनों को मंदिरों के संचालन में स्थायी अधिकार देने की योजना देखी जा रही है। यह आशंका भी निराधार नहीं।
श्री त्यागी ने कहा कि हिंदू समाज के हितों की लगातार बलि चढ़ाई जाती रही हैं हमारे देश में स्वतंत्रता के समय से ही सोवियत मॉडल पर राज्यतंत्र के अधिकाधिक विस्तार की बुरी परंपरा बनी। उससे होने वाली हानियां, व्यापक भ्रष्टाचार और अंतत: सोवियत संघ का विघटन देखकर भी हमारे राजनीतिक दलों में उसका आकर्षण नहीं घटा। कारण यही है कि राज्यतंत्र का विस्तार उनकी निजी ताकत और सुविधाएं बढ़ाता है। यह आशंका गलत नहीं कि मंदिरों को कब्जे में लेकर नेतावर्ग अपनी ताकत एवं आमदनी और बढ़ाना चाहें।
इसका सबसे दुखद पहलू यह है कि जिस हिंदू समाज के बल पर भारतीय राज्यतंत्र दशकों से चल रहा है, उसी के हितों की लगातार बलि चढ़ाई जाती रही है। स्वतंत्र भारत में ही पूर्व सरकारों के मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति के चलते हिंदुओं को मुस्लिम और ईसाई समुदायों की तुलना में हीन दर्जे में कर दिया गया, जो ब्रिटिश राज में भी नहीं था।
हिंदुओं को मुस्लिमों, ईसाइयों की तुलना में कम धार्मिक कानूनी अधिकार देते हुए स्वयं भारतीय संविधान में ऐसी व्यवस्था कर दी गई कि हिंदुओं को मुस्लिमों, ईसाइयों की तुलना में कम शैक्षिक, धार्मिक, कानूनी अधिकार हैं। इस ओर संकेत करते हुए डॉ0 अम्बेडकर ने भारतीय संविधान को गैर-सेक्युलर कहा था, क्योंकि ‘यह विभिन्न समुदायों के बीच भेदभाव करता है।’ इसी मूल गड़बड़ी का नतीजा हिंदू मंदिरों पर सरकारी कब्जा भी है। यह हिंदूवादी कहलाने वालों के शासन में भी जारी है।
सुप्रीम कोर्ट हिंदू मंदिरों पर सरकारी कब्जे को अनुचित कह चुका
कोर्ट ने साफ कहा है कि ‘मंदिरों का संचालन और व्यवस्था भक्तों का काम है, सरकार का नहीं।’सुप्रीम कोर्ट ने चिदंबरम (तमिलनाडु) के नटराज मंदिर को सरकारी कब्जे से मुक्त करने का आदेश 2014 में दिया था। इसके अलावा पुरी के जगन्नाथ मंदिर मामले में जस्टिस बोबडे ने कहा था, ‘मैं नहीं समझ पाता कि सरकारी अफसरों को क्यों मंदिर का संचालन करना चाहिए?’
उन्होंने तमिलनाडु का उदाहरण दिया कि सरकारी नियंत्रण के दौरान वहां अनमोल देव-मूर्तियों की चोरी की अनेक घटनाएं होती रही हैं। ऐसी स्थितियों का कारण भक्तों के पास अपने मंदिरों के संचालन का अधिकार न होना है। यह अधिकार राज्य ने छीन लिया और उसके अमले वैसे ही काम करते हैं, जैसे आम सरकारी विभाग। वे धार्मिक गतिविधियों, रीतियों में भी हस्तक्षेप करते हैं।