ममता या मोह? एक मां के अवैध संबंधों की अधूरी कहानी जिसने बेटे की जिंदगी बदल दी – Love or Obsession (Part 3)
✅ कहानी का तीसरा भाग आपने सुना — जहां ममता और मोह की जद्दोजहद, रीना और मृत्युंजय के रिश्ते की गहरी खाई को और बढ़ा देती है। समाज का डर, रिश्तों की दरार और ममता का दर्द अब और भी तीव्र हो चुका है। यह सिर्फ एक मां-बेटे की कहानी नहीं, बल्कि उस समाज की भी कहानी है जो ममता को तंजों, तानों और डर की जंजीरों में बांध देता है। आज हम फिर से रीना और मृत्युंजय की कहानी को आगे बढ़ाते हैं, जहां हर कदम पर दर्द और सच्चाई की लड़ाई छिड़ी है।
वो शाम जो इंसानियत से पूछती रही सवाल
रीना जब अस्पताल के दरवाजे से बाहर कदम रखी, तो ऐसा लगा जैसे उसकी परछाई भी उस पर सवाल कर रही हो। हवा में बेटे की आत्मा की धीमी पुकार घुली थी — “मां, अब तुम मुझे साथ चलोगी ना?” वह आवाज़ उसके कानों तक नहीं, बल्कि उसकी आत्मा तक पहुंची थी। पर उसके कदम ठिठककर भी नहीं रुके। समाज के डर ने उसे आगे बढ़ा दिया — जैसे किसी अंधेरे ने ममता को निगल लिया हो। रात के सन्नाटे में स्टेशन का प्लेटफॉर्म उसके मन का आईना बन गया — सूना, ठंडा और बोझिल।
डॉक्टर शौर्य का स्नेह और आंसुओं का अधूरा संदेश
डॉक्टर शौर्य ने अपनी कार रोक कर कहा, “रीना जी, कुछ खा लीजिए… आपका रास्ता लंबा है।” वह मुस्कराई, पर उस मुस्कान में गहरा दर्द था। डॉक्टर शौर्य को देर नहीं लगी यह समझने में कि यह मुस्कान सिर्फ एक दिखावा थी। “नहीं डॉक्टर साहब, भूख तो वहां छूट गई जहां मैंने अपने बच्चे को छोड़ा है,” उसने कहा।
यह सुनकर डॉक्टर शौर्य के दिल में एक गहरी पीड़ा का अहसास हुआ, लेकिन वह चुप रहे। रीना ने स्टेशन की सीढ़ियों की ओर कदम बढ़ा दिया। ट्रेन की सीटी बजी और हवा में धुआं घुल गया। उसकी आंखों में नमी थी, हर बार डिब्बा हिलता और उसका मन कांप उठता, जैसे हर झटका उसे याद दिला रहा हो कि उसने अपनी आत्मा पीछे छोड़ दी है।
मृत्युंजय और पिता के दिल की गहरी बात
उधर अस्पताल के कमरे में मृत्युंजय की निगाहें दरवाजे पर अटकी थीं। हर बार नर्स आती तो उसका दिल धक से गिर जाता — “शायद मां वापस आई हो।” पर नहीं… पहचाने हुए कदमों की आहट आज भी दूर थी। डॉक्टर पिता कमरे में आए और बेटे का सिर सहलाते हुए पूछा, “बेटा, अब कैसा लग रहा है?”
मृत्युंजय ने बुझे स्वर में कहा, “पापा, मां का होना भी एक किस्म की गैरहाजिरी लगता है… वह है भी और नहीं भी।” पिता ने आंखें पोंछी और बोले, “बेटा, कभी-कभी लोग समाज को देवता बना लेते हैं और अपनों को बलिदान कर देते हैं।” मृत्युंजय चुप रहा, लेकिन उसकी आंखों ने कह दिया, “शायद मेरी मां ने भी यही पूजा की है।”
रीना का फोन और उसकी आत्मा का सवाल
तीसरे दिन जब रीना का फोन आया, उसने पूछना चाहा — “पिताजी आए?” बेटे ने उत्तर दिया, “नहीं मां, वो दिल्ली में हैं।” कुछ पल की चुप्पी रही। फिर वह कहना चाहती थी, “बेटा ठहरो, मैं आ रही हूं।” लेकिन उसके होठों पर समाज ने ताला जड़ दिया। उसने बस कहा, “ध्यान रखना बेटे, मैं जल्द आऊंगी…” फिर फोन रख दिया — और उसके बाद सन्नाटा था, बस सांसों की थकी हुई आवाज़।
व्हाट्सएप स्टेटस और मृत्युंजय का दर्द
दो दिन बाद रीना ने अपने फोन के व्हाट्सएप स्टेटस पर लिखा —
“जब समस्या अपनों से होती है, तो समाधान खोजना चाहिए, न्याय नहीं… क्योंकि न्याय एक को दुखी करता है और दूसरे को खुश।” मृत्युंजय ने वह स्टेटस देखा। एक क्षण को उसकी आंखों में मां की तस्वीर उभरी, और अगले ही पल धुंधली पड़ गई।
वह भागता हुआ पिता के पास पहुंचा और बोला, “पापा, क्या मां अब प्यार में भी तर्क ढूंढने लगी है? क्या ममता भी समझौते में बदल सकती है? क्या न्याय मांगना गलत है, जब कोई सिर्फ अपने हक का दर्द समझना चाहता है?” इतना कहते-कहते उसका गला भर आया। आंखों का सैलाब रोका नहीं जा सका।
पिता का धैर्य और बेटा का विश्वास
पिता ने उसे बाहों में भर लिया। बोले, “बेटा, कुछ लोग अपने दिल को समाज की अदालत में पेश कर देते हैं… और तब ममता हार जाती है।” मृत्युंजय सिसक पड़ा। “पापा, जब ममता डर से हार जाए, तो क्या उसे ममता कहना चाहिए? क्या ऐसी मां को भगवान माफ कर पाएगा?” कमरे की दीवारों पर सन्नाटा पसरा था, पर उस रात मानो हर ईंट रो रही थी। बाहर हवा तेज चली — जैसे प्रकृति भी उस बेटे के दर्द पर आंसू बहा रही हो।
डॉक्टर पिता ने उसके माथे को चूमकर कहा, “बेटा, दर्द वही महान बनाता है जो उसे दूसरों के लिए सीख में बदल दे। तुम्हारी मां आज डर में डूबी है, पर एक दिन वह उस डर की सजा खुद को देगी। तब शायद तू वही होगा, जो उसे माफ करेगा।”
मृत्युंजय का दिल और उसकी ताकत
मृत्युंजय ने आंखें बंद कीं और पापा से धीरे से कहा, “तब तक मैं यही चाहूंगा कि कोई और बच्चा मेरी तरह मां के डर का शिकार न बने।” कमरे में जैसे कोई प्रकाश फैल गया। अचानक वह अस्पताल, जो अब तक मौत की गंध से भरा था, उम्मीद की सांसें लेने लगा।
ममता की पुनः प्राप्ति और समाज का डर
कुछ दिनों बाद, बिहार में चुनाव का मौसम आया। पूरे नगर में झंडे, नारों और वादों की गूंज थी, पर इस भीड़ में एक चेहरा था, जो सबसे अलग, सबसे खाली था — रीना। वह नवादा आई थी, अपने छोटे बेटे के साथ। पर ससुराल नहीं गई, न उस बेटे के घर, जिसने कभी अपना बचपन उसके आंचल की छांव में गुजारा था। रीना सीधे चली गई पाठक के घर — वही पाठक, जो वर्षों से उसकी ममता की डोर अपने हाथों में थामे हुए था।
पाठक ने कहा, “रीना, कल वोट डालना है, सुबह जल्दी पहुंचना मत भूलना। लोग देखेंगे तो अच्छा लगेगा। हमारा नाम ऊंचा होगा।” रीना ने बस सिर हिला दिया — जैसे अब उसका जीवन किसी और की मर्जी पर चल रहा हो।
रीना की ममता का पतन और उसका दर्द
वह औरत जो कभी सच्चाई की मिसाल थी, अब समाज के डर और पाठक के जाल में फंसी हुई थी। पास ही मोहल्ले की कुछ औरतें उसकी बातें सुन रही थीं, और उनमें से एक ने धीमे से कहा, “बेचारी… ना घर की रही, ना घाट की।” दूसरे ने कहा, “जब तक जवानी है, तब तक तो लोग पास रहेंगे। फिर जब साया भी साथ छोड़ देगा, तब देखना, वही बेटा, जिसे छोड़ गई थी, उस पर उसकी नजरें ढूंढेंगी। तब शायद महसूस करेगी कि जो एक पल की शर्म में खो दिया, वह पूरी जिंदगी की राहत था।”
आत्मग्लानि और आत्मसाक्षात्कार
रीना ने यह सब सुना, वह कुछ नहीं बोली, बस मुड़कर चली गई। लेकिन उसके भीतर कुछ टूट चुका था। हर कदम के साथ उसे महसूस हो रहा था कि उसके जूतों से नहीं, आत्मा से आवाज़ आ रही है। घर लौटकर उसने आईने में खुद को देखा। उसकी आंखों में मौत नहीं, आत्मग्लानि थी। यह उस अधूरी जिंदगी की कहानी है, जो गहराई, विस्तार और भावुकता से प्रस्तुत की गई है।
रीना की दुनिया अब एक जलती हुई लौ नहीं, बल्कि जली हुई राख बन चुकी थी। उसकी हर रात और दिन जैसे बुझती हुई चिंगारी के साथ खुद एक अधूरी दास्तान कहता है। जब दर्द गहरे होते हैं, तब उम्मीदें भी टूट जाती हैं। लेकिन क्या एक बेटे का दिल कभी मां के लिए उम्मीद छोड़ सकता है? वह बेटा, जिसने अपनी मां की ममता को अपनी आत्मा का हिस्सा बना लिया था।

