Baghdad की बरसी पर फिर गूंजा सद्दाम का नाम: 22 साल बाद भी नहीं भुला इराक का वो काला दिन
9 अप्रैल 2003 — एक तारीख जो केवल एक तानाशाह के पतन का प्रतीक नहीं बनी, बल्कि एक ऐसे दौर की शुरुआत भी हुई जिसने पूरे मिडल ईस्ट की राजनीति, सामाजिक ढांचे और अंतरराष्ट्रीय संबंधों को हिला कर रख दिया। Baghdad के फिरदौस चौक पर जब अमेरिकी टैंकों की मौजूदगी में सद्दाम हुसैन की कांस्य प्रतिमा को ध्वस्त किया गया, तो पूरे विश्व ने एक युग का अंत और दूसरे की शुरुआत होते देखा।
🔥 बगदाद के पतन की वो ऐतिहासिक सुबह
सुबह की धूप में चमकता बगदाद, गोलियों और बम धमाकों के बीच सहमा हुआ था। अमेरिका के नेतृत्व में शुरू हुआ ‘ऑपरेशन इराकी फ्रीडम’ अपने तीसरे हफ्ते में था और अब राजधानी बगदाद अमेरिकी सेनाओं के नियंत्रण में थी। 9 अप्रैल को अमेरिकी मरीन फिरदौस स्क्वायर पहुंचे और बगदाद की पहचान बन चुकी सद्दाम की विशाल प्रतिमा को रस्सियों और एक क्रेन की मदद से नीचे खींच दिया गया।
लोग उतरे गुस्से में — मूर्ति पर चप्पलों और पत्थरों की बौछार!
प्रतिमा गिरते ही वहां मौजूद लोगों में जैसे आक्रोश का विस्फोट हो गया। कुछ लोग चप्पल मार रहे थे, कुछ पत्थर फेंक रहे थे, तो कुछ अपनी कुंठा निकालते हुए उस कांस्य प्रतिमा को घसीट रहे थे। यह दृश्य पूरी दुनिया ने टीवी पर लाइव देखा — और इतिहास बन गया।
🇮🇶 सद्दाम हुसैन: एक शासक, एक तानाशाह, एक भय का नाम
सद्दाम हुसैन का जन्म 28 अप्रैल 1937 को इराक के तिकरित गांव में हुआ था। बचपन संघर्षों से भरा था और पालन-पोषण उसके चाचा ने किया। बाथ पार्टी से जुड़ने के बाद उसने तेजी से राजनीति में पैर जमाए और 1979 में इराक का राष्ट्रपति बना। सद्दाम की सत्ता में न केवल आतंक और डर था, बल्कि उसने अपने विरोधियों का सफाया करने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
100% वोट पाने वाला चुनाव भी सद्दाम का ही था!
उसने चुनाव कराए — पर उसमें कोई खड़ा ही नहीं हुआ। जनता का विरोध असंभव था। कहा जाता है कि उसे 100% वोट मिले, पर यह लोकतंत्र नहीं था, यह तानाशाही का घिनौना मजाक था।
🔫 अमेरिका का आक्रमण और इराक की किस्मत का पलटाव
अमेरिका ने 20 मार्च 2003 को सद्दाम के खिलाफ सैन्य अभियान शुरू किया। वजह बताई गई — सामूहिक विनाश के हथियार। लेकिन वर्षों की जांच और युद्ध के बाद भी WMDs (Weapons of Mass Destruction) का कोई सुराग नहीं मिला। अमेरिका के हमले का असली असर हुआ — एक संप्रभु राष्ट्र का पतन और वर्षों तक खून-खराबा।
दिसंबर 2003: सद्दाम की गिरफ्तारी और दिसंबर 2006 में फांसी
सद्दाम हुसैन को दिसंबर 2003 में तिकरित के पास एक भूमिगत सुरंग से पकड़ा गया। वो एक गड्ढे में छिपा बैठा था — चुप, थका हुआ, और पराजित। इसके बाद मुकदमा चला और दिसंबर 2006 में उसे फांसी दे दी गई। पर उसके पतन के बाद जो खालीपन आया, वो इराक के लिए और भी ज्यादा घातक साबित हुआ।
🕳️ सत्ता शून्यता और अराजकता: अमेरिका की ‘जीत’ का स्याह पक्ष
बगदाद पर कब्जा भले ही अमेरिका की सैन्य जीत थी, लेकिन इससे इराक की नागरिक व्यवस्था पूरी तरह चरमरा गई। लूटपाट, हत्याएं, फिर जातीय संघर्ष और विद्रोह — हर गली में खून बहने लगा। अल-कायदा और बाद में आईएसआईएस (ISIS) जैसे आतंकी संगठनों को इसी अराजकता ने जन्म दिया।
अमेरिका का इराक से औपचारिक हटाव — दिसंबर 2011
8 साल की लंबी जंग के बाद, दिसंबर 2011 में अमेरिका ने इराक से औपचारिक तौर पर वापसी की घोषणा की, लेकिन इस बीच लाखों लोग मारे जा चुके थे, शहर खंडहर बन चुके थे और एक समृद्ध सभ्यता बिखर चुकी थी।
🌍 अंतरराष्ट्रीय राजनीति में असर — मिडल ईस्ट में बदलाव की लहर
इराक युद्ध और बगदाद का पतन केवल एक देश तक सीमित नहीं रहा। इससे सीरिया, ईरान, लेबनान, यहां तक कि अफगानिस्तान की नीतियों पर भी असर पड़ा। अमेरिका की ‘रीजनल हेजमनी’ की रणनीति सवालों के घेरे में आई और विश्व में एक नया ध्रुवीकरण शुरू हो गया।
🕰️ 22 साल बाद भी जिंदा हैं जख्म
आज 2025 है, लेकिन इराक की धरती अभी भी उस दिन को नहीं भूली है। फिरदौस चौक पर अब नई इमारतें हैं, नई सरकार है, पर सद्दाम की गिरती मूर्ति की गूंजें आज भी वहां की दीवारों से टकराती हैं।
क्या बदला? क्या मिला?
लोकतंत्र आया, पर स्थिरता नहीं
तानाशाह गया, पर आतंकी आए
अमेरिका आया, पर छोड़ गया जले हुए शहर
📸 कुछ अनदेखी तस्वीरें और घटनाएं
बगदाद में उस दिन बचे हुए टैंकों पर बच्चे चढ़े नजर आए
अमेरिकी सैनिकों के साथ तस्वीर खिंचवाते इराकी
सद्दाम के सरकारी भवनों को जलाया गया
लूट में बैंक, म्यूजियम तक खाली कर दिए गए
22वीं बरसी पर फिर से उठ रहे हैं सवाल: क्या यह युद्ध वाजिब था? क्या वाकई इराक में विनाश के हथियार थे? और सबसे अहम — क्या यह सब लोकतंत्र लाने के लिए किया गया था?
इतिहास अब भी जवाब तलाश रहा है…