“बीवी बनाम मां” विवाद पर Supreme Court का तगड़ा संदेश: पत्नी की भी सुनी जानी चाहिए बात, रिश्तों में ज़िम्मेदारी निभाइए!
परिवार में झगड़े, तकरार और रिश्तों की उलझनें कोई नई बात नहीं, लेकिन जब यह मसला Supreme Court की चौखट तक पहुंचे, तो बात केवल कानून की नहीं, बल्कि संवेदना और सामाजिक जिम्मेदारी की भी बन जाती है।
ऐसा ही एक मामला सामने आया Supreme Court में, जहां एक भारतीय महिला और उसका अमेरिका में रहने वाला पति आपसी विवाद के चलते दो देशों में बंट गए — और उनका परिवार भी। दोनों के बच्चे अलग-अलग रह रहे हैं — बेटा मां के पास भारत में, तो बेटी दादी के साथ। कोर्ट ने न सिर्फ कानूनी पहलुओं को देखा, बल्कि अपने फैसले में दिल से बात की — एक ऐसा संदेश दिया जो हर भारतीय घर में गूंजना चाहिए।
पति के मुंह से बार-बार मां का जिक्र, तो कोर्ट ने लगाई फटकार
सुनवाई के दौरान जब पति ने बार-बार अपनी मां की बात दोहराई और पत्नी की शिकायतों को अनसुना करने की कोशिश की, तो जस्टिस बीवी नागरत्ना ने बेहद सटीक टिप्पणी की, “समस्या तब शुरू होती है जब मां की बात पत्नी से ज्यादा मानी जाती है। हम यह नहीं कह रहे कि मां को नजरअंदाज कीजिए, लेकिन पत्नी से भी बात कीजिए। अब बड़े हो जाइए।”
यह बात महज़ एक सलाह नहीं थी, बल्कि भारतीय समाज के उस गहरे जख्म पर मरहम थी, जहां अक्सर पत्नी और मां के बीच चल रही खींचतान में पति खुद को एकतरफा झुका हुआ दिखाता है। नतीजा — रिश्ते बिखरते हैं, बच्चे टूटते हैं और परिवार का ढांचा चकनाचूर हो जाता है।
“अपने बच्चों के लिए रिश्ते को दोबारा मौका दीजिए” – सुप्रीम कोर्ट की भावुक अपील
वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए पति-पत्नी सुप्रीम कोर्ट के सामने पेश हुए। वहां पति ने पत्नी पर झूठा केस करने का आरोप लगाया, तो पत्नी ने उपेक्षा का दर्द बयान किया। इस पर जस्टिस केवी विश्वनाथन और जस्टिस नागरत्ना की बेंच ने दोनों को फटकार लगाते हुए कहा:
“कम से कम अपने बच्चों के भविष्य के लिए अपने रिश्ते को एक और मौका दीजिए।”
कोर्ट ने यह भी कहा कि भावनात्मक जुड़ाव और बच्चों का भला, आपसी लड़ाई से कहीं ज्यादा बड़ा मुद्दा है। कोर्ट ने खासतौर से इस बात पर ज़ोर दिया कि दोनों माता-पिता को अपने-अपने अहम को पीछे छोड़कर बच्चों की भलाई को प्राथमिकता देनी चाहिए।
बेटे को कभी देखा नहीं – कोर्ट ने जताई नाराज़गी
पति ने कोर्ट को बताया कि उसने अपने बेटे को कभी देखा ही नहीं क्योंकि वह पत्नी के पास भारत में रह रहा है। इस पर कोर्ट ने पत्नी से आग्रह किया कि बेटे को कैमरे पर दिखाया जाए। पत्नी ने जवाब दिया कि बच्चा स्कूल गया हुआ है। कोर्ट ने तब आदेश दिया कि “मध्यस्थता के दौरान बेटे की मुलाकात उसके पिता से करवाई जाए।”
“कल्पना कीजिए, एक बच्चा जिसने न अपने पिता को देखा है, न अपनी बहन को – यह मत होने दीजिए,” — कोर्ट की यह टिप्पणी रिश्तों में दरारों को जोड़ने वाली थी, न कि केवल कानूनी आदेश।
‘मां बनाम पत्नी’ का संघर्ष – भारतीय समाज की जमीनी हकीकत
यह मामला जितना कोर्ट रूम का था, उतना ही भारत के हर आम परिवार का भी। ‘सास-बहू का झगड़ा’ एक ऐसा मुद्दा है जो टेलीविज़न के सीरियल्स से लेकर सच्चे जीवन तक, हर जगह मौजूद है। परंतु यहां सुप्रीम कोर्ट ने इस संघर्ष को संवेदनशीलता से देखा और यह बताया कि यह केवल अधिकार या अहं का विषय नहीं है — यह बच्चों के भविष्य और भावनात्मक स्थिरता से जुड़ा मुद्दा है।
कई बार देखा गया है कि भारतीय घरों में मां बेटे पर आरोप लगाती है कि वह “बीवी की सुनता है”, और बहू कहती है कि “पति मां की बातों पर चलता है।” इसी खींचतान में पति मानसिक रूप से फंसता है, और बच्चों की परवरिश में खलल आ जाती है।
जस्टिस नागरत्ना का सामाजिक संदेश: ‘बड़े हो जाइए’
कोर्ट की सबसे चर्चित टिप्पणी यही रही – “अब बड़े हो जाइए।” यह टिप्पणी न सिर्फ उस व्यक्ति के लिए थी जो बार-बार मां का पक्ष ले रहा था, बल्कि पूरे समाज के लिए एक चेतावनी है। एक व्यक्ति जब शादी करता है, तो वह केवल एक नया रिश्ता नहीं जोड़ता, बल्कि एक नई ज़िम्मेदारी उठाता है — भावनात्मक और सामाजिक दोनों ही रूपों में।
कोर्ट ने बहुत साफ संदेश दिया कि मां का सम्मान और पत्नी का सम्मान — दोनों साथ-साथ चल सकते हैं। ज़रूरत है केवल संतुलन बनाने की। जब घर में संतुलन होता है, तभी परिवार खुशहाल होता है।
सुप्रीम कोर्ट की सलाह: ‘मध्यस्थता से सुलझाइए बात, बच्चे टूटने न दें’
कोर्ट ने पति-पत्नी दोनों को सुझाव दिया कि मध्यस्थता प्रक्रिया अपनाएं और अपने विवाद को सुलझाने की कोशिश करें। अदालत ने कहा कि “यह रिश्ता केवल एक कानूनी अनुबंध नहीं है, बल्कि यह एक भावनात्मक रिश्ता है। इसे टूटने से बचाइए, खासकर बच्चों के लिए।”
क्या यह फैसला भारतीय समाज को बदलने की दिशा है?
किसी भी अदालत का फैसला केवल दो पक्षों के बीच निर्णय नहीं होता, वह समाज को एक संदेश देता है। यह निर्णय भी यही करता है। अदालत ने बता दिया कि माता-पिता के बीच विवाद का असर सबसे ज्यादा बच्चों पर पड़ता है, और अगर आज की पीढ़ी को मानसिक रूप से स्वस्थ बनाना है, तो मां-बाप को मिलकर, समझदारी से, संयम से काम लेना होगा।
रिश्तों की मरम्मत अब भी मुमकिन है…
पति-पत्नी चाहे जितने भी दूर चले जाएं, पर अगर रिश्तों में संवाद, सम्मान और समझदारी वापस लाई जाए, तो वो फिर से जुड़ सकते हैं। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट का संवेदनशील रुख बताता है कि न्यायपालिका सिर्फ सख्ती नहीं, इंसानियत से भी काम करती है।

