स्वास्थ्य

दवा एक रोग अनेक : Thuja occidentalis

यह एक होम्योपैथिक की जानी-मानी दवा का नाम है । आज हम इसी दवाई के बारे में कुछ विस्तृत जानकारी प्राप्त करेंगे। कनाडा और नर्दन स्टेटस के जंगलों में एक तरहका पेड़ पैदा होता है । ‘ उसके पत्ते से यह होम्योपैथिक दवाई थूजा ऑक्सिडेण्टालिस ( Thuja Occidentalis ) का मदरटिंचर तैयार होता है ।

यह एक प्रधान एण्टिसाइकोटिक ( प्रमेह – विष नाशक ) दवा है । चमें , मूत्रयन्त्र और जननेन्द्रियपर इसकी प्रधान क्रिया होती है। इसके अलावा और भी कई तरह के लक्षणों मैं इसका प्रयोग किया जाता है जैसे:

( १ ) बहुत ज्यादा परिमाणमें पेशाब होना , इतनेपर भी मूत्रनलीमें जलन ;

( २ ) बहुत ज्यादा परिमाणमें प्रमेहका स्राव ;

( ३ ) मसा , योनिमें या पुं – जनने न्द्रियमें मसा , कॉण्डाइलोमाटा ;

( ४ ) लुप्त प्रमेहसे उत्पन्न बीमारी या टीका होनेके बाद पैदा हुई कोई बीमारी ;

( ५ ) बहुत जल्दी – जल्दी दुबले होते जाना ;

( ६ ) सवेरे पहली बार भोजनके बाद दस्त , पीले रंगका दस्त , दस्त होनेके पहले पेटमें बहुत गड़गड़ाहट ;

( ७ ) उपदंशसे उत्पन्न चर्म – रोग ;

( 8 ) रैनुला ( जीमका अर्बुद ) , जीभ और मुंहके भीतर छाले , जीभमें व मुंहके भीतर वेरिकोसिल ;

( 9 ) कब्जियत ; ( १० ) मायेके सिवा और सभी स्थानोंमें पसीना ;

( ११ ) बदबूदार कानका स्राव ।

जैसा कि आप लोग जानते हैं कि होम्योपैथिक दवाई डिजीज पर काम ना करके सिम्टम्स पर वर्क (काम)करती है।हम बातें रह गई कि इसके रोगी के माइंड सिम्टम्स कैसे हो सकते हैं तो मानसिक लक्षण माइंड सिम्टम्स कुछ इस प्रकार रहेंगे तो यह दवा काफी काम करेगी : जीवन – धारण से अनिच्छा , हमेशा ही दुःखित , मनमें तेज नहीं रहता , ज्ञान बुद्धि – हीन , निर्जन – स्थानमें रहनेकी इच्छा , ऐसा सोचता है कि वह ऊँचे संसर्ग में रहनेके अयोग्य है । रोता है , और भी एक तरहका लक्षण है – रोगी सोचता है कि उसकी देह काँच की तरहके किसी टूट जाने वाले पदार्थ से बनी है , सहज में ही टूट जायगी 

इसीलिये किसी मनुष्यको पास नहीं आने देता , पेटके भीतर मानो न जाने क्या एक जीव हिलता है , आत्मा मानो शरीरसे अलग हो गया है वह मानो किसी स्वर्गीय शक्तिसे परिचालित हो रहा है , कितने ही विदेशी मनुष्य उसके पासमें खड़े हैं इत्यादि ।अगर हम इस श्राव की तरफ ध्यान दें तो पाएंगे कि इसका -स्राव पतला , रंग हरा या पीला , पेशाब करने के समय बहुत जलन , पेशाबका बहुत अधिक वेग रहनेपर भी जरा – जरा कर बूंद – बूंद पेशाब टपकता है , पेशाब के साथ कमी – कमी खून मी निकलता है , पेशाब होना खतम होने पर भी ऐसा मालूम होता है कि मीतर कुछ पेशाब रह गया है 

पुराना प्रमेह – रोग प्रमेह ( chronic gonorrhea ) अगर किसी तरह भी आरोग्य न हो और बार बार बीमारी पैदा हो जाया करती हो , इसके अलावा प्रमेह – रोगके कारण अण्डकोषकी कोई बीमारी हो जाय – सूजन और दर्द रहे तो थूजासे बहुत फायदा होता है । अगर पिंचकारी लेकर सूजाक आराम किया गया है और इस तरह कोई दूसरी बीमारी पैदा हो जाय तो – थूजा ही महौषध है ।

किसी भी तरह का टीका लेनेके कारण उत्पन्न बीमारियाँ – टीका का बीज अगर अच्छा न हो तो बच्चेको नाना प्रकारकी बीमारी हो सकती है । जैसे–ज्वर , अतिसार , जखम , चेचककी तरह गोटियाँ या उद्भेद इत्यादि टीका लेनेके दोषसे चाहे कोई भी बीमारी क्यों न हो , उसमें थूजा फायदा करती है । साइलिसिया और कैलि म्यूर भी इस तरहकी बीमारीके लिये महौषध है ।

 

अतिसार – पीले रङ्गका पानीकी तरह पतला दस्त , यह पेट गड़गड़ाकर कलकल शब्दकर खूब वेगसे अगर निकलता हो और मलके साथ वायु भी निकलता हो – थूजा फायदा करती है । थूजामें सवेरेके भोजनके बाद पाखाना आना बढ़ जाता है ( क्रोटॉन अध्यायमें जेट्रोफा देखिये ) । और सिर – दर्द – आँख – मुँह बन्द करने पर ही सिर में चक्कर आना शुरू हो जाता है इसके रोगी को। इतना ही नहीं बल्कि स्तन (वक्ष) के चारों पार्श्व में कमरबन्द की तरह दाद , एक तरह का भैंसिया दाद की तरह उभेद होता है , बड़े – बड़े चकत्ते के आकार के धब्बे शरीर पर निकल आते हैं , जो ” शिंगलस – वर्तुलाकार विसर्पिका या कटि – दर्द ” कहलाते हैं , इस अवस्था में हमें थूजा काफी मदद करता है ।

इस दशा के साथ बहुत ज्यादा कष्ट और स्नायु – शूल का दर्द रहता है । प्रमेह – विष – दूषित रोगी रहने पर , इसमें सन्देह नहीं कि थूजा एक बहुत बड़ी दवा होती है । आपको एक तरह के रोगी मिलेंगे , जहाँ कि रस – कपूर का ( Calomel ) प्रयोग कर रोगी को छिपा दिया गया है , जिससे कि वे फट जाते ओर गिर जाते हैं , ऐलोपैथी चिकित्सा ऐसी ही है । कभी – कभी कोई रोगी आपके पास भ्रमणशील उपसर्गों के साथ आयगा और आपको उसके लक्षणों को घण्टों तक अध्ययन करना पड़ेगा , आप देखेंगे , कि उनमें बहुत कम श्रृङ्खला है , आपको अनुभव हो जायगा , कि परिचालक लक्षण छोड़ दिये गये हैं और किसी चीज का अभाव है ।

किसी ने नाइट्रिक एसिड का प्रयोग किया है , किसी ने कैलोमेला या किसी दूसरी चीज का और इन मसों को हटा दिया है । ये मसे बिना कोई धातुगत – विकार रहे , निकल नहीं सकते ; इन मसों का भी कारण है और यदि मसे निकल आते हैं , तो रोगी को बीमार बनाने की इन कारणों की शक्ति घटी रहती है , मसे निकले रहने पर अच्छा मालूम होता है । यह एक आश्चर्य की बात है , कि जब ये मसे दबा दिये गये , तो हमें थूजा , नाइट्रिक एसिड , मक्युरियस और स्टैफिसेग्रिया के लक्षण प्राप्त होते हैं । थूजा इन दबे हुए मसों के कारण उपसर्गों की सबसे प्रधान दवा है ।

जब जैव – जहर का इतिहास प्राप्त हो , जैसे कि साँप काटना , छोटी माता या टीका लेना , तो थूजा ही उसकी सबसे पहली प्रधान दवा होती है । शायद मूत्रनली से बहुत तरह का स्राव होता है ; पर उनमें से एक ऐसा है , जो प्रमेहज है और जब यह प्रमेहज – स्राव दबा दिया जाता है , तो यह एक प्रकार का ऐसा दोष उत्पन्न करता है , जिसमें पैर के तलवे में और घुटने में एक प्रकार की यन्त्रणा होती है और खासकर यह यन्त्रणा पीठ , कमर और गृध्रसी स्नायुओं की राह से घुटने और गुल्फ सन्धियों में होती है , कभी – कभी यह ऊपरी शाखा – अङ्गों पर प्रभाव करती है ; पर खासकर निम्न – शाखा अङ्गों में ।

चुपचाप शान्त रहने पर रस – टक्स की तरह घोर रोग वृद्धि होती है , बहुत ज्यादा दर्द होता है और यह तब तक बढ़ता जाता है , जब तक वह चुपचाप बैठा रहता है , उसे अक्सर बिछावन छोड़ देना पड़ता है और इसके बाद वह लगातार हिला – डोला और करवट बदला करता है । इसके लिये कोई सोरा – विष – नाशक अवश्य चुनना चाहिये । जब कि रोगी प्रमेह – विष – दूषित नहीं रहता और ये लक्षण – समूह रस – टक्स द्वारा आरोग्य कर दिये जाते हैं ; पर जब ये ही लक्षण दबा दिये गये तो सूजाक के लक्षण उत्पन्न होते हैं , तब मेडोरिनम या थूजा आरोग्य कर देगा ।थूजा आक्सिडेण्टोलिस विशेष क्षेत्र में प्रवेश कर जाता है और इसके खास रोगी को उस समय वशीभूत कर लेता है

जहाँ जड़ में प्रमेह – विष रहता है । कभी – कभी जब कि स्राव रोध कर दिया जाता है , तो अण्डकोष का प्रदाह पैदा हो जाता है , उस समय पल्सेटिला ही इसकी दवा होगी और थूजा शायद ही कभी याद करेगा । थूजा का प्रभाव बायें अण्डकोष पर होता है जब कि खूब तेज निचोड़ने की तरह दर्द होता है , पर खासकर पल्सेटिला को ही इसके लिये सर्वश्रेष्ठ औषध पायेंगे ।

जब थूजा का हम अधायन करते हैं तो देखते हैं , कि ग्रन्थियों पर इसकी बहुत गहरी क्रिया होती है , ग्रन्थियों में सुई गड़ने या फाड़ने की तरह दर्द और यह दर्द इस तरह का होता है , मानो ग्रन्थियाँ फाड़कर टुकड़े – टुकड़े की जा रही हैं । यह सार्वागिक ग्रन्थियों के विषय में सत्य हो सकता है ; पर खासकर एक ग्रन्थि के विषय में , डिम्बाशय पर किसी दूसरी ग्रन्थि से ज्यादा आक्रमण होता है और खासकर बायें डिम्बाशय पर । यह इतना सत्य है , कि यदि बायें डिम्बाशय में आपको तेज दर्द होता दिखाई दे और यदि मासिक रजः – स्राव काल में यह उत्पन्न होता हो और तब तक बना रहता हो , जब तक स्राव जारी रहे तथा जांघों तक फैल जाता हो ; पर सभी दिशाओं में होता हो , तो आप इसका प्रयोग कीजिये । ज्योंही स्राव जारी होता है , यह दर्द बढ़ जाता है ।

डङ्क मारने , फाड़ने , जलन , फटपड़ने की तरह दर्द मानो वे अंश फाड़े जा रहे हैं , रोगिनी को बाध्य होकर जोर से चिल्लाना पड़ता है , वह हिस्टीरिया की दशा में चली आ जाती है । यह थूजा का जबर्दस्त लक्षण – समूह है । यह जिङ्कम और लैकेसिस के विपरीत है ; क्योंकि इनमें स्राव आरम्भ होने पर आराम पहुँचता है । बहुत सी स्त्रियों को सभी समय डिम्बकोष में धीमी – धीमी पीसने की तरह का दर्द होता है , उन्हें अपने इस यन्त्र का ज्ञान होता रहता है , जो उन्हें अनुभव न होना चाहिये ; सर्दी लग जाने के कारण या ऋतु – परिवर्तन के कारण दर्द ; बायें डिम्बाशय में दर्द होना पहला चिन्ह है ; कभी – कभी तो दर्द इतना प्रचण्ड होता है , कि सहानुभूति रूप से दाहिने में भी दर्द होने लगता है । जब कुछ समय से डिम्बकोष आक्रान्त रहता है , मानसिक लक्षण भी उत्पन्न हो जाते हैं 

बहुत ज्यादा चिड़चिड़ापन , ईर्षा , झगड़ालूपन , बेहूदापन प्रभृति आ जाते हैं । यह चिड़चिड़ापन खासकर घर के मनष्यों के प्रति दिखाई देता है ; पति के प्रति या माता के प्रति ; अपरिचितों के सामने तो वह अपने को वश में रख सकती है और चिकित्सक को इसका पता नहीं लग सकता है ; क्योंकि उसकी प्रकृति में धोखा देने का एक भाव रहता है ; वह अकेली रखना चाहती है और उसमें यह एक बँधा विचार हो जाता है , कि वह गर्भवती है या उसके उदर में कोई जानवर है , वह बच्चे के ब्राहु का हिलना अनुभव करती है , सोचती है , कि उसका कोई पीछा कर रहा है या उसके अगल – बगल कोई टहल रहा है ; सोचती है , कि शरीर और आत्मा अलग – अलग हैं । ये सब बँधे विचार हैं और तर्क द्वारा उनके मन से निकाल बाहर करने की चेष्टा करना वृथा है । उसे ऐसा अनुभव होता है

कि वह बहुत ही दुर्बल हो गई है , वह काँच की बनी हुई है और । वह टूट जायेगी । खयाल यह होता है , कि वह टूट जायगी , न कि वह पारदर्शक है । इस दशा के साथ , हमें बहुत जोरों का तेज और फाड़ने की तरह दर्द प्राप्त होता है , आँखों में फाड़ने की तरह दर्द , यह दर्द ताप से घटता है । चक्षु – गोलक का दर्द ताप से अच्छा रहता है और बाकी ठण्डी हवा में अच्छे रहते हैं । छोटी – छोटी जगहों पर दर्द स्थान बना लेता है । इग्नेशिया और ऐनाकाडियम की तरह सर में या मस्तक – पार्श्व में या ललाट में एक कांटी घुसायी जा रही है , ऐसा दर्द । ये दर्द बढ़कर फाड़ने की तरह दर्द में चले जाते हैं तथा चक्षु – गोलक को आक्रान्त करते हैं उसमें इतनी ज्यादा यन्त्रणा होती है , कि उसे मुश्किल से स्पर्श किया जा सकता है ; ताप से तथा लेटने पर हो जाता है

गर्म कमरे में बदतर रहता है और खुली हवा में अच्छा रहता है । सर के वातज लक्षण तर हवा में बदतर रहते हैं , खट्टी चीजों से बदतर हो जाते हैं और बल – बर्द्धक तथा उत्तेजक पदार्थों से भी । इस तरह स्थायी भाव से मूल भेषज जीवनी शक्ति पर कभी प्रभाव नहीं जमा सकते ; पर एक मनुष्य , जो एकदम असहिष्णु और ठीक – ठीक असहिष्णु है , संक्रामक रोग की तरह असहिष्णु है , इस अवस्था में यदि सपेरे – शाम इस दवा का प्रयोग करें , तो आप उसमें जीवनव्यापी धातु – दोष भर यदि आपने कोई दवा दी है , तो लक्षण उत्पन्न होने की राह से देखिये और प्रकृति के अनुकुल भाव से अग्रसर होइये ।

साइकोसिस ( प्रमेह – विष ) में यही प्रवणता बहुत कुछ है और यह प्रवणता बाहर की ओर रहती है । भेषजों की परीक्षा में हम जो प्राप्त करते हैं , वही हम रोग में भी देखते हैं । जब सूजाक का र विष संक्रमण करता है , तो वह पूर्वाभास काल के भीतर से जाता है और इसके बाद रोग उत्पन्न होता है , जो अगर योंही छोड़ दिया जाता है , तो स्वास्थ्य – विधान से निकल जाने की इसमें आप ही प्रवणता रहती है और फिर स्थायी उपसर्गों से रोगी कष्ट नहीं पाता ।

ऐलोपैथिक चिकित्सा में , वे हमेशा स्राव की रोक को दबा देते हैं और नयी चिकित्सा – प्रणाली अर्थात् होमियोपैथी कुछ अच्छा काम करती है । बार – बार दुहराने के कारण , जो किसी को हुआ करता है , वह स्वतः सूजाक को नहीं बढ़ा देगा ।

क्योंकि रोग – प्रवणता सन्तुष्ट हो रहा है । किसी दवा की परीक्षा करने के लिये ज्यादा मात्रा में दवा खाना , उतना नुकसान नहीं करता जब कि परीक्षा का परिचालन जो कर रहा है , वह अनुभव करता है , जब लक्षण पैदा होना आरम्भ होता है और फिर भेषज बन्द कर देता है ।

अब यदि मात्रा को तब भी दुहराते जायें , जब लक्षण उत्पन्न हो गये हैं , तो हम स्वास्थ्य विधान में उस समय भी भेषज को ढूँसते जा रहे हैं , जब कि वह स्वतः विष पूरित हो गया है और इस तरह हमें लक्षणों में गड़बड़ी प्राप्त होती है । उस व्यक्ति को जीवनभर भषेज – रोग भोगना पड़ता है ।

 

 

Drved 1 |

लेखक:

डा0 वेद प्रकाश विश्वप्रसिद्ध प्राकृतिेक एवं होमियोपैथी चिकित्सक हैं। जन सामान्य की भाषा में स्वास्थ्य सम्बन्धी जानकारी को घर घर पहुँचा रही “रसोई चिकित्सा वर्कशाप” डा0 वेद प्रकाश की एक अनूठी पहल हैं। उनसे नम्बर 8709871868 पर सीधे सम्पर्क किया जा सकता हैं और ग्रीन स्टार फार्मा द्वारा निर्मित दवाईयाँ भी घर बैठे मंगवाई जा सकती हैं।

 

Dr. Ved Prakash

डा0 वेद प्रकाश विश्वप्रसिद्ध इलेक्ट्रो होमियोपैथी (MD), के साथ साथ प्राकृतिक एवं घरेलू चिकित्सक के रूप में जाने जाते हैं। जन सामान्य की भाषा में स्वास्थ्य सम्बन्धी जानकारी को घर घर पहुँचा रही "समस्या आपकी- समाधान मेरा" , "रसोई चिकित्सा वर्कशाप" , "बिना दवाई के इलाज संभव है" जैसे दर्जनों व्हाट्सएप ग्रुप Dr. Ved Prakash की एक अनूठी पहल हैं। इन्होंने रात्रि 9:00 से 10:00 के बीच का जो समय रखा है वह बाहरी रोगियों की नि:शुल्क चिकित्सा परामर्श के लिए रखा है । इनका मोबाइल नंबर है- 8709871868/8051556455

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