कब तलक अफसोस करे कि वो हासिल ना हुआ
गम जमाने भर का मैंने, अब उठाना छोड़ दिया,
अंधेरे रास्तों पर भी, चिराग जलाना छोड़ दिया।
तन्हाई से अपनी अब, बेफिक्र,बेवक्त गले मिलता हूं,
जमाने में ही रहकर अब, मैंने ज़माना छोड़ दिया।
बस एक उनको शिकायत थी,मेरे गली से गुजरने पर,
मुहल्ले के लोग पूछते है, मैंने क्यों आना छोड़ दिया।
बेवजह ये लफ्ज़ कही उसका नाम, ना गुनगुना दे,
वजह यही रही कि मैंने महफ़िल में जाना छोड़ दिया।
मशवरे तो दुनिया वालो ने मुझे भी हजार दिये थे,
बेफिजूल की बातो पर,गौर फरमाना छोड़ दिया।
वो देखकर मुझे आज, सरेआम अनजान हो गए,
मैंने भी जिल्लत के रिश्ते को निभाना छोड़ दिया।
ताल्लुक मेरे दिन ब दिन कुछ यूं भी खत्म हुए है
खुद को गिरवी रखकर,लोगो को मनाना छोड़ दिया।
सिलसिले बातो के बंद कुछ यूं भी हुए है दिन ब दिन
उसने पूछना छोड़ा, ओर मैंने हाल बताना छोड़ दिया।
मेरा मकान क्या गिरा, लोग इंटे उठा कर साथ ले गए,
इसी दहशत से अब मैंने,अपना ठिकाना छोड़ दिया।
कब तलक अफसोस करे कि वो हासिल ना हुआ “दीप”
मिटाकर उसकी यादें,खुद का दिल दुखाना छोड़ दिया।।
रचनाकार:
इं0 दीपांशु सैनी (सहारनपुर, उत्तर प्रदेश) उभरते हुए कवि और लेखक हैं। जीवन के यथार्थ को परिलक्षित करती उनकी रचनाएँ अत्यन्त सराही जा रही हैं। (सम्पर्क: 7409570957)