अनमोल लोगों से रिश्ता रखता हूँ…
ख्वाहिश नहीं मुझे
_मशहूर होने की,
आप मुझे पहचानते हो
बस इतना ही काफी है.
अच्छे ने अच्छा और
बुरे ने बुरा जाना मुझे,
क्यों की जिसकी जितनी जरूरत थी
उसने उतना ही पहचाना मुझे.
जिन्दगी का फलसफा भी
कितना अजीब है,
शामें कटती नहीं और
साल गुजरते चले जा रहें है.
एक अजीब सी
दौड है ये जिन्दगी,
जीत जाओ तो कई
अपने पीछे छूट जाते हैं और
हार जाओ तो
अपने ही पीछे छोड़ जाते हैं.
बैठ जाता हूँ
मिट्टी पे अकसर,
क्योंकि मुझे अपनी
औकात अच्छी लगती है.
मैंने समंदर से
सीखा है जीने का सलीका,
चुपचाप से बहना और
अपनी मौज मे रेहना.
ऐसा नहीं की मुझमें
कोई ऐब नहीं है,
पर सच कहता हूँ
मुझमें कोई फरेब नहीं है.
जल जाते है मेरे अंदाज से
मेरे दुश्मन,
_क्यों की एक मुद्दत से मैंने,
…. न मोहब्बत बदली
और न दोस्त बदले हैं._
एक घडी खरीदकर
हाथ मे क्या बांध ली
वक्त पीछे ही
पड गया मेरे.
सोचा था घर बना कर
बैठुंगा सुकून से,
पर घर की जरूरतों ने
मुसाफिर बना डाला मुझे.
सुकून की बात मत कर
ऐ गालिब,
बचपन वाला इतवार
अब नहीं आता.
जीवन की भाग दौड मे
क्यूँ वक्त के साथ रंगत खो जाती है ?
हँसती-खेलती जिन्दगी भी
आम हो जाती है.
एक सवेरा था
जब हँसकर उठते थे हम,
और आज कई बार बिना मुस्कुराये
ही शाम हो जाती है.
कितने दूर निकल गए
रिश्तों को निभाते निभाते,
खुद को खो दिया हम ने
अपनों को पाते पाते.
लोग केहते है
हम मुस्कुराते बहुत है,
और हम थक गए
दर्द छुपाते छुपाते.
खुश हूँ और सबको
खुश रखता हूँ,
लापरवाह हूँ फिर भी
सब की परवाह करता हूँ.
मालूम है
कोई मोल नहीं है मेरा फिर भी
कुछ अनमोल लोगों से
रिश्ता रखता हूँ.
समस्त बड़ों और छोटो से अनुरोध है कि एक एक लाइन को समझने की कोशिश करे !
रचनाकार:
मूलतः शांत स्वभाव के दिखने वाले श्री ओम प्रकाश गुप्ता (सम्पर्क: 9907192095) एक प्रखर राष्ट्रवादी ,विद्रोही रचनाकार लेखक एवं समाज सेवक है जो समसामयिक विषयों पर अपनी तल्ख रचनाओं एवं टिप्पणियों के लिए जाने जाते हैं|