पैग़ाम ए इश्क़
अब और कहा तक, ये रिश्ता निभाया जाए,
ये मसला ए इश्क़, अब तो सुलझाया जाए,
फैसला चाहे जो भी हो, सब मंजूर है मुझे,
बस थोड़ा जुर्म तो, उसका भी बताया जाए,
ये दलीले जो मोहब्बत की , पेश की है उसने,
इन दलीलों से फरेब का, नक़ाब हटाया जाए,
गवाही दुनिया ने आज, उसी के हक में दे दी,
अरे कोई एक तो गवाह मेरा भी बुलाया जाए,
दिल कहीं उससे फिर, मोहब्बत ना कर बैठे,
गुज़ारिश है कि उसे अदालत में ना लाया जाए,
इश्क़ में सकूं की नींद, ना हासिल थी मुझे,
अब सकूं से मुझे, मौत की नींद सुलाया जाए,
निशानियां मोहब्बत की उसे परेशां करेगी,
मेरे सब खतो को भी, मेरे साथ जलाया जाए,
उसे अपने फैसले पर कभी, अफसोस ना हो,
किताबो से उसकी वो, गुलाब हटाया जाए,
पाकर उसकी खुशबू, जिंदा ना हो जाऊं “दीप”,
बस कोई भी कफ़न, उसके घर से ना लाया जाए।।
♥इं0 दीपांशु सैनी
(सहारनपुर, उत्तर प्रदेश)